आज से उच्च न्यायालय का शीतकालीन अवकाश प्रारम्भ हो रहा है और मैं अपने मित्रों के साथ सपरिवार दस दिन की छुट्टियाँ मनाने के लिए गुजरात यात्रा पर निकल गया हूँ।
बहुत दिन के बाद रोजमर्रा की भागम-भाग और तनाव से दूर स्वयं को अपने पास पाया तो मेरा अतीत भी मेरे साथ हो लिया। ऐसा लग रहा है कि जैसे थोड़े ही दिनों पहले की ही बात हो जब मैं गांव से निकलकर भारतीय वायुसेना में चला गया और रिटायर होकर वकालत में आ गया। समय बीतते देर ही नहीं लगी। देखते ही देखते जीवन के 55 वर्ष बीत गए लेकिन जब तक दर्पण नहीं देखता हूँ, इस बात का अहसास ही नहीं होता कि मैं उम्र के इस पड़ाव पर खड़ा हूँ।
मुझे यह देखकर बहुत सन्तोष होता है कि हमारे देश के लोग अपने सैनिकों के प्रति स्नेह, सम्मान और सहयोग का भाव रखते हैं। जहां तक मैं समझता हूं कि यह प्यार एकतरफा नहीं है। युद्ध हो, शान्तिकाल हो या आपदाकाल हो, इस देश का हर सैनिक भी अपने देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को सदैव तत्पर रहता है। हर सैनिक का सपना होता है कि वह देश के ऊपर आने वाले हर खतरे को अपने सीने पर ले और देश के लिए काम आये। वह मोर्चे पर इस संकल्प के साथ जाता है कि वह या तो विजयी होकर लौटेगा या फिर उसका पार्थिव शरीर तिरंगे झंडे में लिपट कर अपनो के पास पहुंचेगा। यही कारण है कि वह हर हिन्दुस्तानी के दिल में रहता है।
सैनिक किसी क्षेत्र, जाति, धर्म विशेष में पैदा नहीं होते बल्कि सेना द्वारा ढाले जाते हैं। सेना में भर्ती होने वाले साधारण प्रतिभा वाले नौजवानों को सेना के सतत् शिक्षण, प्रशिक्षण व संस्कार द्वारा एक सैनिक बनाया जाता है। मैं आज भी इस बात का गर्व करता हूँ कि मुझे भारतीय वायुसेना में बीस वर्ष सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
सैनिकों के जीवन में यूँ तो हर दिन, हर पल एक नया रोमांच लेकर आता है लेकिन उनमें से कुछ अविस्मरणीय होते हैं। मेरे सैन्य जीवन में अनेकानेक रोमांचक पल आये परन्तु कुछ खास हैं, जो मैं प्रायः अपने बच्चों से साझा करता हूँ। मेरी बेटियां प्रायः मुझसे कहती हैं कि पापा आप अपने संस्मरण लिखा करिए और हो सके तो अपनी आत्मकथा लिखिए।
जीवन की इस आपा धापी में इतना समय तो नहीं है कि आत्मकथा लिखूं और लिखूं भी तो पढेगा कौन। फिर भी मैं आपको अपने सैन्य जीवन के सबसे रोमांचक दौर में ले चलूंगा, जिससे न केवल आप अपने सैनिकों के जीवन में आने शारिरीक, मानसिक एवं भावनात्मक उतार चढ़ाव को समझ पाएंगे बल्कि एक नये भू भाग से भी परिचित होंगे।
2 जनवरी 1984 को मुझे भारतीय वायुसेना में एक वायुसैनिक के रूप में सम्मिलित किया गया और उसी दिन बेसिक ट्रेनिंग के लिए बेलगाम, कर्नाटक रवाना कर दिया गया। 6 माह की बेसिक ट्रेनिंग के बाद मुझे राडार ऑपरेटर के रूप में एक साल की ट्रेड ट्रेनिंग के लिए बंगलौर भेजा गया। ट्रेनिंग के बाद सौभाग्य से मुझे पहली पोस्टिंग जोधपुर वायु रक्षा प्रणाली केन्द्र में मिली, जिसे भारत में वायु रक्षा प्रणाली का मक्का मदीना माना जाता है।
जब मैं पहली बार आपरेशन सेन्टर में प्रवेश किया तो वहां का दृश्य देखकर विस्मृत रह गया। एक ऐसा केन्द्र जहां से चारो ओर 400 किलोमीटर की परिधि में एक लाख फीट ऊँचाई तक के वायु क्षेत्र में होने वाली समस्त हवाई गतिविधियों और रक्षा प्रणाली की लाइव मानिटरिंग, संचालन और नियन्त्रण किया जाता हो, उस केन्द्र में काम करने का रोमांच अकल्पनीय है। वह पल मेरे जीवन का सबसे रोमांचक पल था।
मई 1989 मे मेरी पोस्टिंग लेह हो गई। उस जमाने में आज की तरह इन्टरनेट और गूगल की उपलब्धता नहीं थी। हमें देश दुनिया की उतनी जानकारी नही होती थी, जितना आज के दौर में लोगों को रहती है। लेह लद्दाख की जो सीमित जानकारी पोस्टिंग इन्स्ट्रक्शन में दी गई थी, वही जानकारी हमें वहां के बारे में थी।
मैं मई माह में ही अपनी पत्नी और 6 माह की बेटी को गांव छोड़ कर जोधपुर आया और अगस्त 1989 मे लेह के लिए रवाना हो गया। लेह आने जाने के लिए हमें चण्डीगढ रिपोर्ट करना पड़ता था और वहां से हमें एअर लिफ्ट किया जाता था ।
1989 मे पंजाब आतंकवाद की आग में झुलस रहा था और आतंकवादी छुट्टी पर आने जाने वाले सैनिकों को विशेष रूप से टारगेट करते थे। हम सैनिकों को पंजाब में कहीं भी बाहर आने जाने में विशेष सतर्कता बरतनी पडती थी।
अगस्त 1989 की कोई तारीख थी, मैं दोपहर के वक़्त चण्डीगढ पहुंचा था। खा पीकर आराम किया। शाम के वक्त लेह के डिटैचमेन्ट कमाण्डर से मुलाकात हुई, उन्होंने मुझे लेह के मौसम व तापमान की जानकारी दी तथा बताया कि चण्डीगढ और लेह के तापमान में लगभग 25 डिग्री का अन्तर होता है और हवा में आक्सीजन की मात्रा लगभग आधी हो जाती है। उन्होंने मुझे एक लिखित निर्देश की प्रति दी, जिसमें तमाम हिदायतें दी गई थी कि वहां उतरने के बाद जहाज़ से बाहर निकलते समय हमें क्या सावधानी रखनी चाहिए। हमें निर्देश दिया गया कि हम अगली सुबह साढ़े चार बजे टर्मिनल पर पहुंच जाएँ।
सुबह हम चार बजे तैयार हो गए, गाड़ी में सामान रखा गया और गाड़ी हमें लेकर टर्मिनल के लिए चल पड़ी और हम 5-7 मिनट में टर्मिनल पर पहुंच गए। यह मेरे जीवन का एक और सर्वाधिक रोमांचक पल था। इसके पहले मैं किसी सिविल एअरपोर्ट या मिलिटरी एअरबेस के ट्रांसपोर्ट टर्मिनल पर नहीं गया था।
टर्मिनल का दृश्य अद्भुत था। साढ़े चार बजे टर्मिनल पर एक लाइन से 20-30 जहाज़ उड़ान के लिए तैयार हो रहे थे। उनमें लोडिंग हो रही थी। इनमें चार जेट इंजिन वाले आई एल 76 गजराज, चार प्रापेल्सन इंजिन वाले ए एन 12 और दो प्रापेल्सन इंजिन वाले ए एन 32 सभी थे।मुझे बताया गया कि इनमें से कुछ लेह जाएंगे, कुछ लेह से आगे नुब्रा वैली में स्थित फॉरवर्ड बेस पर जाएंगे और कुछ सियाचिन ग्लेशियर में ड्रापिन्ग के लिए जाएंगे।
मैं मन ही मन मना रहा था कि मुझे ए एन 12 मे सीट मिल जाए, क्योंकि ए एन 12 की सेवा का यह अन्तिम वर्ष था। 1990 मे ए एन 12 भारतीय वायुसेना से रिटायर हो रहा था। ए एन 12 विमान वर्ष 1965 और 1971 के युद्ध में बमवर्षक के रूप में इस्तेमाल किया गया था। इसका एक शानदार इतिहास था और मैं भी इससे उड़ान भरकर स्वयं को इसके इतिहास के साथ जोड़ना चाहता था।
सौभाग्य से मुझे ए एन 12 मे ही सीट मिली और मैं अपने सैन्य जीवन के एक नये सफ़र पर चल पड़ा। लगभग 6 बजे हमारा विमान लेह के लिए उड़ान भर लिया। हिमालय की बियाबान बर्फीली चोटियों के ऊपर से उड़ान भरते हुए हम कब लेह पहुंच गए, ध्यान ही नहीं रहा। लगभग साढ़े सात बजे हम लेह एअरबेस पर उतर गए थे।
लेह का नजारा अद्भुत था। बृक्षहीन बर्फीली चोटियों से घिरी घाटी में एक शान्त रेगिस्तान। दूर दूर दिख रहे मकान, कहीं कहीं खड़े इक्के-दुक्के पेड़, सामने पहाड़ी पर स्थित बौद्ध मठ सब खामोशी ओढ़े हुए से दिख रहे थे। सड़क पर इक्के-दुक्के आते-जाते वाहन शहर की जिवन्तता की गवाही दे रहे थे। पूरी घाटी में एक अजीब सी गर्जना इस खामोशी का लगातार अतिक्रमण कर रही थी। पूछने पर लोगों ने बताया कि यह सिन्धु नदी की बेगवती धारा का शोर है, जो एअरबेस के पास से होकर ही बहती है।
लेह टर्मिनल पर मुझे लेने के लिए मेरी यूनिट की गाड़ी आ गई थी चाय पीने के बाद मैं सीधे अपनी यूनिट में गया। गर्मजोशी से स्वागत हुआ, अपने सी ओ और एड्जुटैन्ट से मिला, चाय पिया और फिर मुझे मेरी बैरक में छोड़ दिया गया।
अगले दिन मैं अस्पताल गया, जांच पड़ताल हुई और एक सप्ताह के लिए आराम और अनुकूलन की हिदायत दी गई। एक सप्ताह के बाद अभी मैं वहां की कार्य प्रणाली को समझ ही रहा था कि इसी बीच हिमालयन कार रैली प्रतियोगिता, जो मनाली से लेह होते हुए श्रीनगर जानी थी, को सपोर्ट करने का दायित्व हमारी यूनिट को दिया गया। इसके लिए हमें इस रूट पर संचार व अन्य आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराना था।
लेह में यह मेरी तैनाती का शुभारंभ था। अगस्त महीने में भी लेह का न्यूनतम तापमान 0 डिग्री से 5 डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता हैऔर अच्छी खासी ठण्ड रहती है। हमे लेह मनाली रोड पर कारू में कैम्प करना था। कारू जाते समय हम चांगला दर्रा से गुजरे, जो पौने अट्ठारह हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है और दुनिया का दूसरा सबसे ऊँचा मोटरेबल रोड है।
मुझे इसी दौरान यह जानकारी हुई कि दुनिया का सबसे ऊँचा दर्रा यानि मोटरेबल रोड खरदून्गला भी भारत में है और लेह से नुब्रा वैली होते हुए सियाचिन ग्लेशियर जाने वाले मार्ग पर स्थित है, जिसकी ऊंचाई लगभग 18,000 फीट है।
इस अभियान से लौटते ही मुझे कारगिल जाने का निर्देश प्राप्त हुआ। यह भी आश्वासन दिया गया कि कारगिल में तीन महीने रहकर लौटने के बाद मुझे छुट्टी मिलेगी। कारगिल में हम थल सेना के साथ रहते थे। जब मैं कारगिल पहुंचा तो उस समय वहां गोरखा रेजिमेंट तैनात थी। गोरखा लोगों के नाम मुझसे मिलते जुलते थे और फिर मैं नेपाल के सीमावर्ती प्रदेश से था, इस लिए रेजिमेंट के अधिकारी व जवान मुझसे विशेष स्नेह रखते थे।
कारगिल लद्दाख का दूसरा सबसे बड़ा शहर है और बेहद खूबसूरत है। हम कारगिल में तीन महीने रहे। वहां की गलियों से लेकर झरनों व चोटियों तक हम खाली समय में घूमते रहते। पता ही नहीं चला कि समय कैसे बीत गया। दिसम्बर का महीना आ गया, कइ दौर की बर्फबारी हो चुकी थी, एक दिन मुख्यालय से आदेश हुआ कि ऊधमपुर से आने वाले हेलीकाप्टर को कारगिल लैंड कराकर उसी से मैं लेह लौट आ जाऊं। मैं खुश था कि लेह पहुंच कर मुझे 10-20 दिन की छुट्टी पर घर जाने का मौका मिल जाएगा। दोपहर के वक़्त हेलीकाप्टर कारगिल लैंड किया और मैं उसमें सवार होकर दोपहर बाद लगभग 3 बजे मैं लेह पहुंच गया। हेलिकॉप्टर से अपनी बेडिंग और सूटकेस लेकर उतरा तो मैंने देखा कि मेरे सी ओ और एक अन्य वरिष्ठ सहकर्मी हेलीपैड पर खड़े थे। अभिवादन और औपचारिक हालचाल के बाद मेरे सी ओ ने मुझसे कहा कि अपना सामान वापस हेलीकाप्टर में रख दो, तुम्हे इसी हेलीकाप्टर से फॉरवर्ड बेस जाना होगा और वहां से तुम्हे सियाचिन ग्लेशियर जाना होगा।
यह सुनकर मेरी सारी खुशियाँ काफूर हो गई । छुट्टी जाने का सपना चकनाचूर हो गया। मैं जानता था कि सियाचिन ग्लेशियर जाने कै बाद मैं तीन महीने से पहले नहीं लौट सकूँगा। मैं अपने सी ओ को बताया कि मैं मई मे अपनी पत्नी व बच्ची को गांव छोड़ कर जोधपुर आया फिर यहाँ पोस्टिंग आ गया। 6 महीने से ऊपर हो गया मुझे परिवार से मिले और मुझे यह आश्वासन भी दिया गया था कि कारगिल से लौटने के बाद मुझे छुट्टी मिलेगी।
मेरे सी ओ छुट्टी देने में असमर्थता व्यक्त करते हुए कहे कि इस समय मैनपावर की कमी है, तुम फॉरवर्ड बेस चलो, मैं कल फॉरवर्ड बेस आऊंगा तब तुमसे बात करूँगा। मेरे मन में विद्रोह की भावना बलवती होती जा रही थी, मैं बिना कोई प्रतिक्रिया दिये खड़ा रहा। मेरे सी ओ कदाचित मेरी मनोदशा समझ रहे थे। वह मेरी पीठ थपथपाते हुए कहे कि तुम अभी फॉरवर्ड बेस जाओ, मैं कल फॉरवर्ड बेस आऊंगा, तब तुमसे बात करूँगा। मेरे सी ओ खुद मेरा सूटकेस उठा लिए, मुझे मजबूरन सूटकेस उनके हाथ से छिनना पड़ा। मैं भारी मन से और भारी कदमों से फिर उसी हेलीकाप्टर में सवार हो गया और नुब्रा घाटी में स्थित फॉरवर्ड बेस के लिए रवाना हो गया। हमारा हेलीकाप्टर 18,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित खरदून्गला पास के ऊपर से उड़ान भरते हुए फॉरवर्ड बेस पहुंच गया।
वहां भी नजारा लेह जैसा ही था, दूर दूर तक बियाबान रेगिस्तान, न पेड़ न पौधे न कोई बस्ती। बगल से बहती हुई नदी का शोर पूरी घाटी में फ़ैला हुआ। तय हो चुका था कि मुझे सियाचिन ग्लेशियर जाना होगा। अगले दिन मेरे सी ओ लेह से आये। मैनपावर की दिक्कतों का हवाला देकर मुझसे प्रसन्नचित्त होकर सियाचिन ग्लेशियर जाने को कहा। कमान अधिकारी का आदेश ही पर्याप्त होता है, लेकिन यह भारतीय सेना की खूबसूरती है कि जब मेरे सी ओ को लगा कि मैं व्यथित होकर गया हूँ और तैनाती के लिए जो मनोदशा होनी चाहिये, वैसी मनोदशा में नहीं हूँ तो वह समय निकाल कर मुझे केवल मोटीवेट करने करने के लिए हेलीकाप्टर से लेह से फॉरवर्ड बेस आये और मेरे साथ लगभग एक घंटा बिता कर मुझे मोटीवेट कर वापस गए। उसी दिन दोपहर बाद हेलीकाप्टर से मुझे दक्षिणी ग्लेशियर में 22,000 फीट की ऊंचाई पर पहुंचा दिया गया।
सियाचिन ग्लेशियर को दुनिया का सबसे ऊँचा रणक्षेत्र होने का गौरव प्राप्त है, जहां तापमान शून्य से 40-50 डिग्री नीचे तक चला जाता है। वहां हवा में आक्सीजन की मात्रा महज़ 4-5 % तक होतीं है। जगह जगह गहरी दरारें व खाईंया होती हैं, जो ऊपर से दिखाई नहीं देती हैं और बहुत बार सैनिक उसमें फंस कर शहादत को प्राप्त हो जाते हैं। इसके अलावा हिम स्खलन से भी खतरा बना रहता है।
सियाचिन ग्लेशियर में आक्सीजन की कमी के कारण वहां जाने के बाद कम से कम सात से दस दिन तक कुछ भी ठोस आहार लेना मुश्किल होता है, प्रायः उल्टी आने जैसा महसूस होता है। सैनिकों को दुश्मन के साथ साथ प्रकृति से भी लड़ना पड़ता है। थोड़ी भी असावधानी जिन्दगी पर भारी पड़ती है। बहुत सारे सैनिक स्नो बाइट से अपने पैर गंवा देते हैं।
तीन महीने सियाचिन ग्लेशियर में रहने के बाद ही मुझे रिलीवर मिल पाया। सियाचिन से लौटकर मैं फॉरवर्ड बेस से ही छुट्टी चला गया। दो वर्ष के अपने कार्य काल में मैं छ माह से अधिक समय सियाचिन ग्लेशियर में तैनात रहा। हमारी यूनिट पूरे साल कारगिल से सियाचिन ग्लेशियर तक अग्रिम पंक्ति में सेना के साथ तैनात रहती थी। हम बर्फ के रेगिस्तान में भी मस्ती ढूंढ लेते थे। जाड़े के दिनों में नुब्रा और श्योक की उपरी सतह जम जाती थी तो उसके उपर स्कीइंग का खूब आनंद लेते थे। गर्मियों में जब कभी हम लेह में होते थे, तो सुबह ही खाने पीने की व्यवस्था के साथ सिन्धु नदी के किनारे पहुंच जाते थे, वहां खूब खेलते कूदते, खाते पीते, वहां चर रहे घोड़ों को पकड़ कर गमछे की लगाम लगाकर घुड़सवारी करते और पूरे दिन मस्ती करके वापस आते।
सियाचिन ग्लेशियर में जीवन कितना कठिन और चुनौतीपूर्ण है, आम आदमी इसकी परिकल्पना भी नहीं कर सकता। लेकिन इन हालातों में भी सैनिकों की मस्ती वहां भी बरकरार रहती है। जिस दिन सुबह से लगातार गोलाबारी होती रहती है तो उस दिन खाना भी नहीं बनता और प्रायः ड्राई फ्रूट, इलेक्ट्राल और फ्रूटी पर ही दिन बिताना पड़ता है। वैसे ज्यादातर वहां सुबह सुबह हमारी नींद गोलों के फटने की आवाज़ से ही खुलती थी और किसी किसी दिन तो पूरे दिन धूम धडाम चलती रहती थी। जिस दिन सुबह सुबह गोलाबारी नहीं होती थी तो उस दिन सूना सूना लगता था।
हमारे पाइलट सियाचिन ग्लेशियर में ताजी सब्जियां, रसद व अन्य आवश्यक आपूर्ति बनाए रखने के लिए दिन रात एक किए रहते हैं। परिवार से दूर रहने का दर्द क्या होता है, घर परिवार से आने वाली चिट्ठियों का क्या महत्व होता है, यह एक सैनिक से बेहतर कोई नहीं समझ सकता। सेना भी इसे बखूबी समझती है। सियाचिन ग्लेशियर में एअर मेन्टेनेन्स करने वाले हमारे पाइलट भी इस बात की अहमियत खूब समझते हैं। खराब मौसम के कारण जब हमारे हेलीकाप्टर सियाचिन ग्लेशियर में नहीं उतर पाते हैं तो हमारे पाइलट भी सबसे अधिक इस बात से दुखी हो जाते हैं कि सैनिकों की चिट्ठिया पोस्ट पर नहीं पहुंच सकीं।
लेह लद्दाख की पोस्टिंग का दो वर्ष मेरे सैन्य जीवन का सबसे रोमांचक काल खण्ड रहा, वहां से मुझे च्वायस पोस्टिंग इलाहाबाद मिली, जो मेरे जीवन व कैरियर के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुई। वकालत पेशे के प्रति मेरी रुझान बढ़ी और इलाहाबाद पोस्टिंग के दौरान ही मैंने आइ सी डब्ल्यू ए (ई) और एल एल बी की पढ़ाई की।
भारतीय वायुसेना में मैं बीस वर्ष सेवा किया लेकिन मैं कभी किसी से उसकी जाति या धर्म नहीं पूछा न मुझसे किसी ने मेरी जाति या धर्म के बारे मे पूछा। यह है सेना की खूबसूरती। सैनिक के लिए अपने कमाण्डर का आदेश सर्वोपरि होता है, तो वहीं कमाण्डर भी अपने सैनिकों की हर छोटी बड़ी समस्या व उनके सुख दुःख के प्रति संवेदनशील होता है यही कारण है कि सेना एक टीम के रूप में काम करती है।
मुझे एक सैनिक होने पर सदैव गर्व रहा है। मैं गर्व से कह सकता हूँ कि सेना से बेहतर कोई संगठन नहीं हो सकता। सेना केवल एक बल नहीं है बल्कि एक ऐसी संस्था है, जो अनगढ़ नौजवानों को गढ़ कर एक स्व अनुशासित, राष्ट्र भक्त व जिम्मेदार नागरिक बनाती है।
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