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  • Writer's pictureMan Bahadur Singh

मेरी पहली रेल यात्रा

Updated: Apr 16, 2021

बहुत दिनों के बाद फाइलों औऱ किताबों से दूर अवकाश के क्षणों मे अपनी पुरानी यादों के कई पन्नों को पलटने का अवसर मिला। मेरे अन्दर का लेखक कई बार बाहर निकलने के लिए उछाल मारता रहता है। माहौल पाकर एक संस्मरण आपसे साझा कर रहा हूँ।

आज जब हम पीछे मुड़कर अपनी अब तक की जीवन यात्रा को देखते हैं, तो लगता है कि हमने निश्चित ही प्रगति की है, अपने जीवन स्तर को सुधारा है औऱ अपनी अगली पीढ़ी को एक बेहतर भविष्य देने का प्रयास किया है। लेकिन यदि आज के दौर से तुलना की जाए तो लगता है कि हम कितने पिछड़े थे। कई बार तो ईर्ष्या होती है कि हमने जिस काल खण्ड मे जन्म लिया, उस दौर मे न तो आज की तरह मोबाइल था, न टी.वी., न इन्टरनेट औऱ न आवागमन के बेहतर साधन। ना पाकेट मनी औऱ ना ही आज जैसी आजादी। लेकिन उस दौर का भी अपना ही मजा था।

आज बड़ी बड़ी उपलब्धियां भी लोगों को पल भर का सुख सन्तोष नहीं दे पाती हैं, जबकि उस दौर मे छोटी छोटी बातें भी बड़ी बड़ी खुशियों की सौगात दे जाती थीं। हर पल जैसे उमंग व रोमांच से भरा होता था। हमें तीज त्योहारों का महीनों महीनों से इन्तजार रहता था औऱ त्योहार के दिन तो मानो पंख लग गए हों। सुबह से ही जैसे मस्ती छा जाती थी।

मेरा जन्म आजमगढ़ शहर से लगभग 25 कि.मी. उत्तर एक दूर दराज गांव मे एक किसान परिवार मे हुआ। मेरे पिता आजादी के समय एस. के. पी. इन्टर कालेज, आजमगढ़ मे हाई स्कूल के छात्र थे। एस.के.पी. इन्टर कालेज आजादी के पहले से ही स्वतंत्रता आन्दोलन का केन्द्र था। उस दौर मे आजमगढ़ मे माध्यमिक शिक्षा के गीने चुने विद्यालय थे, जिनमें एस.के.पी. एक था। मेरे पिता राम मनोहर लोहिया जी के विचारों से प्रभावित रहे। पंडित उमाशंकर मिश्र (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व पूर्व विधायक प्रजा सोसलिस्ट पार्टी) उनके राजनीतिक गुरु थे। स्व. राम सुन्दर पाण्डेय (पूर्व विधायक मधुबन, मऊ), स्व. राम कुंवर सिंह (पूर्व विधायक सगड़ी) स्व. राम अधार राय (पूर्व विधायक), स्व. राम प्यारे सिंह (पूर्व विधायक व मंत्री) मेरे पिता के बहुत करीबी मित्रों मे से थे औऱ मेरे बाल्यकाल मे हमारे यहाँ इन लोगों का बराबर आना जाना लगा रहता था। मेरे पिता मूलतः एक सामाजिक कार्यकर्ता थे औऱ तत्समय समाज मे प्रचलित छूआछूत, ऊंच-नीच, धार्मिक असहिष्णुता जैसी बुराइयों के खिलाफ कार्य करते रहे, लेकिन उन्होंने कभी राजनीतिक फसल नहीं काटी, बल्कि अपने निजी संसाधनों से सेवा करते रहे, लिहाजा हमेशा उनका खर्चा उनकी आमदनी से ज्यादा रहा।

मैं ये तो नहीं कह सकता कि मेरा बचपन अभाव व गरीबी मे बीता, लेकिन ये भी सच है कि हमें कोई पाकेट मनी नहीं मिलती थी। किताब कापी के नाम पर जो पैसे मिलते थे, उसमें से कुछ बचाकर जीभ चटोरी हो जाती थी। कभी कभार घर के सामान खरीदने का मौका मिलता था, उसमें हिसाब गड़बड़ करके कुछ पैसे बचाता था, जिससे मित्रों के साथ कभी कभार जलपान हो जाता था। परिवार का कोई सदस्य कहीं बाहर नहीं रहता था कि कहीं बाहर निकलने का मौका मिलता। छुट्टियों मे बुआ औऱ मामा के घर जाते थे, वह भी बस या टैक्सी से।

आप लोगों को शायद आश्चर्यजनक लगे, परन्तु यह सच है कि बारहवीं मे पढ़ने तक मैं ट्रेन नहीं देखा था। वर्ष 1982 मे मैं बारहवीं मे विज्ञान वर्ग का छात्र था। हाई स्कूल तक तो पढ़ाई ठीक ठाक रही, लेकिन बारहवीं तक आते आते मन पढ़ाई से हटकर अन्य गतिविधियों जैसे मार पीट व शरारत मे ज्यादा लगने लगा। प्रदेश के खासकर पूर्वान्चल व अण्डरवर्ल्ड के तत्कालीन नामचीन अपराधी मेरे प्रेरणा स्रोत बन गये थे। मैं उनके जैसा डान बनने का सपना देखने लगा।

लेकिन मेरे पिता जी अपने बेटों को इंजीनियर बनाने का सपना पाले थे। मेरे सबसे बड़े भाई को उन्होंने जैसे तैसे पालीटेक्निक मे एडमिशन दिलाया, लेकिन वह वहाँ से फेल होकर कला वर्ग मे चले गये। दूसरे बड़े भाई समय रहते ही कला वर्ग की शरण ले लिए। पिताजी की आखिरी उम्मीद अब मुझ पर टिकी थी, लिहाजा उन्होंने अपना प्रयास बढ़ा दिया। फीजिक्स, कैमिस्ट्री, मैथ व अंग्रेजी का ट्यूशन लगवा दिए, लेकिन मेरे भटके मन को कोई टीचर रास्ते पर नहीं ला सका।

पिताजी के सपनों को साकार करने का नाटक तो मुझे करना ही था। मेरे दो अन्य मित्रों पर भी ऐसी ही उम्मीदों का बोझ था औऱ ऐसे मे हम तीनो ही एक ही नाव पर सवार थे। वह वक्त भी आ गया, जब इंजीनियरिंग इन्ट्रेन्स की परीक्षाओं के फार्म आ गए। अपेक्षा ज्यादा थी, लिहाजा हम तीनों ने आई.आई.टी., रूड़की व प्रदेश इंजीनियरिंग कालेजों के लिए फार्म मंगा लिया। हम तीनों मित्रों ने मंत्रणा की कि सेन्टर ऐसे लिया जाए कि इसी बहाने घूमना हो जाए। हमारी योजना के मुताबिक एक सेन्टर बी.एच.यू. बनारस, दूसरा लखनऊ औऱ तीसरा कानपुर मिला। तीनों परीक्षएं आगे पीछे थी। सब कुछ योजना के मुताबिक। पहली परीक्षा बनारस थी। हम तीनों मित्र बेहतर तैयारी के नाम पर पहले ही बनारस पहुँच गए। लाज मे हम रूके, जमकर घुमाईऔऱ मस्ती हुई। परीक्षा हाल मे तो हम मुश्किल से आधे घंटे मे पेपर निपटा दिए।

बनारस से हमें लखनऊ जाना था। सपना था रेलगाड़ी मे बैठने का। तय हुआ कि लखनऊ रेलगाड़ी से चला जाएगा। हम तीनों एक जैसे ही थे, किसी ने रेलगाड़ी देखी नहीं थी, चढ़ना तो दूर। लेकिन इरादा तो नया देखने व करने का ही था। लिहाजा हम लोग शाम को घूमने फिरने के बाद खा पीकर बनारस के कैण्ट स्टेशन पहुँच गए। बहुत देर तक हम लोग स्टेशन की भव्यता देखकर प्रफुल्लित होते रहे, आखिरकार यहीं से हमारे जीवन का एक नया अध्याय प्रारंभ होने वाला था।

खैर पूछते जांचते हमें पता चल गया कि जनता एक्सप्रेस बनारस से लखनऊ जाने के लिए कुछ ही देर मे प्लेटफार्म पर लगने वाली थी। इसके लिए टिकट लेना पड़ेगा। हम लोग पूरे कान्फीडेन्स के साथ लाइन मे लग गए। टिकट ले ही रहे थे कि घोषणा हुई कि गाड़ी प्लेटफार्म पर लग गई है।

खैर टिकट लेकर हम तीनों मित्र प्लेटफार्म पर पहुँच गए। रेलगाड़ी का जी भर के दीदार किया। आगे पीछे काफी देखा भाला परन्तु सारे डिब्बे खचाखच भरे हुए थे, खड़े होने तक की जगह नहीं थी। हम सभी परेशान थे। हम लोग फिर एक चक्कर लगाए। हमने देखा कि एक डिब्बा है, जहां कोई भीड़ भाड़ नहीं थी। हम लोगों ने दरवाजा खोला, डिब्बा सामान्य डिब्बों से छोटा था, पर पूरा डिब्बा खाली था। मानो मन की मुराद मिल गई। हम तीनों उसमें सवार हो गए। उस डिब्बे मे हमारे अलावा कोई यात्री नहीं था। थोड़ी ही देर मे ट्रेन चल पड़ी। हम लोग अन्दर से दरवाजा बन्द करके बातें करते रहे औऱ फिर चैन से सो गए।

सुबह पांच साढ़े पांच बजे का समय रहा होगा, जब किसी शोर शराबे पर हम मित्रों की नींद खुली। देखा तो काली कोट पहने टी.टी. महोदय दरवाजा खोलने के लिए चिल्ला रहे थे। जब तक हम लोग कुछ समझते, ट्रेन चल पड़ी। हमने देखा कि ट्रेन मालीपुर स्टेशन से गुजर रही थी। हम लोग किसी अनिष्ट की आशंका मे उठ गये औऱ फ्रेस होकर तैयार होकर बैठ गए।

थोड़ी देर मे अकबरपुर स्टेशन आ गया। ट्रेन के रूकते ही टी.टी. महोदय आ गए औऱ दरवाजा खोलने के लिए डपट लगाई। न चाहते हुए भी हमने दरवाजा खोल दिया। टी.टी. महोदय आते ही चिल्लाये कि पिछले स्टेशन पर दरवाजा क्यों नहीं खोला। हमने समझाने का प्रयास किया कि हम लोग जगते ही भागकर दरवाजा खोले लेकिन तब तक ट्रेन चल चुकी थी। वे लगभग उसी तमतमाहट मे बोले, टिकट दिखाओ। हम लोग भला कहाँ बेटिकट चल रहे थे, धड़ से टिकट निकाल कर उन्हें पकड़ा दिया।

टिकट देखते ही टी.टी. महोदय जैसे बेहोश हो गये औऱ अपने आपको लगभग नियन्त्रित करते हुए पूछे कि इसमें कैसे घूस गए। हमने बहुत मासूमियत व अदब से बताया कि मान्यवर यह डिब्बा खाली था, सो हम इसमें आ गए। वह लगभग फटते हुए पूछेकि यह डिब्बा किस क्लास का है? हमने उसी मासूमियत से जबाब दिया कि मान्यवर हमें क्या पता कि ये किस क्लास का डिब्बा है। वह उसी गुस्से मे फिर दहाड़े कि जनरल का टिकट लेकर फर्स्ट क्लास मे घुसने की तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई।

तब तक हम लोग कुछ कुछ समझ गए थे कि टी.टी. महोदय क्यों भड़के हुए है। हम लोगों ने पुनः विनम्रता पूर्वक उन्हें बताया कि मान्यवर यह हम लोगों के जीवन की पहली रेल यात्रा है औऱ हम लोग देहात के बच्चे हैं, हमें जानकारी नहीं थी। हमने उन्हें यह भी बताया कि हम लोग अपने अपने पिता की उम्मीदों को परवान चढ़ाने के मिशन पर हैं। आई.आई.टी. की परीक्षा देकर रूड़की इन्ट्रेन्स की परीक्षा देने लखनऊ जा रहे हैं। वह समझदार व्यक्ति थे औऱ सम्भवतः एक पिता भी। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि हम लोग मासूम व अनजान थे। वह शान्त हो गये। उन्होने हमें जनरल व रिजर्व क्लास के बारे मे समझाया।हमें निर्देश दिया कि अगले स्टेशन गोसाईगंज पर ट्रेन 2 मिनट रूकेगी, तब इस डिब्बे से उतरकर जनरल मे चले जाना। हम लोगों ने निवेदन किया कि मान्यवर गलती तो हो ही गई है, भला 2 मिनट मे हम लोग कहाँ भटकेंगे। कहीं नीचे ही ना रह जाएं। टी.टी. दयालु थे। उन्होंने कहा कि ठीक है, फैजाबाद मे उतर कर चले जाना नहीं तो सीधे जेल भेज दूंगा।

खैर हम लोग फैजाबाद उतरकर जनरल डिब्बे मे चले गए, औऱ फैजाबाद से लखनऊ की यात्रा खड़े खड़े की गई। हमें रेलवे के बारे मे काफी ज्ञान प्राप्त हो चुका था। इंजीनियरिंग परीक्षाओं के रिजल्ट तो हमें पहले से ही मालूम था। पिताजी काफी आशान्वित बैठे थे कि कहीं न कहीं तो हो ही जाएगा। जुलाई आते आते उनका भ्रम टूट चुका था। यू.पी. बोर्ड के परिणाम भी आ चुके थे। मेरे इंटर के मार्क्स (70.2 %, फीजिक्स, कैमिस्ट्री, मैथ मे डिस्टिन्क्सन) जरूर उनके दर्द को कुछ कम करने मे सहायक हुए। मैं बी.एच.यू. मे B.Sc.(Ag) मे दाखिला लेने के कुछ दिन बाद ही एअर फोर्स मे सेलेक्ट हो गया, तो पिताजी का मेरे इंजीनियर न बन पाने का मलाल कुछ कम जरूर हुआ।

खैर पिताजी के सपने को उनके नाती पोते/ पोतियों ने पूरा किया। हमारी अगली पीढ़ी से 5 इंजीनियर, 1 आर्कीटेक्ट, 1 एम. फार्म (आनर्स), 1 एम.एस.सी. (एग्री.), की पढ़ाई पूरी करके पिताजी के सपने को पूरा कर दिया। रही सही कसर उनकी पौत्र वधूओं (एक डाक्टर, एक वकील) ने पूरी कर दी। यात्रा का सपना हो, संकल्प हो, औऱ सही मार्ग हो, तो मंजिलें मिल ही जाती हैं। हाँ कुछ लोगों को जल्दी मिल जाती हैं, कुछ की पीढ़ियां खप जाती हैं।

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