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  • Writer's pictureMan Bahadur Singh

बुलबुल के बच्चों की उड़ान

Updated: Apr 16, 2021

वर्ष २००४ में एयर फ़ोर्स से रिटायर होने के बाद हमने इलाहाबाद में एक छोटा सा घर बनाया. मेरी पत्नी को पेड पौधों से बहुत लगाव है. मेरे मकान के बाहर थोडी सी खुली जगह में मेरी पत्नी ने एक आम, एक गुडहल और एक कनेर का पौधा लगाया. बाउंड्री के बाहर भी पेड़ पौधे और लताएँ लगा दी. छत पर गमलों में भी पौधे लगा दिए. ज्यादातर पेड़ पौधे अब बड़े हो गए हैं और फल फूल देने लगे हैं. आस पास आम का एकलौता पेड़ मेरी ही बाउंडरी में है. दूर दूर से लोग पूजा के लिए आम की पल्लव लेने के लिए आते है . आम के पल्लव देकर मेरी पत्नी को अपार ख़ुशी होती है और गर्व भी कि उनका लगाया पेड़ आज सभी के पूजा पाठ में काम आ रहा है. मेरा मकान मेरे नाम से ज्यादा आम के पेड़ वाले मकान के नाम से जाना जाता है.

आम के पेड़ पर लदे फल देखकर बच्चे- बड़े सभी ललचा जाते है. बच्चे सुनसान देखकर दोपहर में पथ्थर से आम तोड़ने का प्रयास करते रहते है. कुछ शरीफ बच्चे पत्नी से आम मांग लेते है और पाकर प्रशन्न हो जाते है. यद्दपि मै बहुत समय नहीं दे पता हू, परन्तु इनमे पानी डालना और इन्हें निहारना मुझे भी अच्छा लगता है. पत्नी का काफी समय पेड़ पौधों की देखभाल में गुजरता है.

मेरी पत्नी और बच्चे बर्तनों में पानी और चावल भरकर छत पर और बाउंड्री पर रखते है कि चिड़िया आयेगी, दाना खाएगी और पानी पीयेगी. हुआ भी ऐसा. ढेर साडी चिड़िया आती, दाने खाती, चहचहाती और चली जाती. मेरे बच्चे रेडी मेड घोंसला लाकर आम के पेड़ पर लटका दिए कि कोई चिडिया आकर इसमे रहने लगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कई चिडिया अपना घोंसला बनाई लेकिन बने बनाये घोसले में नहीं रही. चिडिया और चिखुर ( गिलहरी) दिन भर पेड़ से लेकर छत तक दौड़ते, तरह तरह की आवाज करते और हम सभी आनंदित होते. यूँ तो ऊँची टहनियों पर बहुत से कबूतर और बुलबुल के जोड़े आये, घोंसला बनाये, अंडे दिए, और बच्चों को लेकर चले गए, लेकिन उनसे बहुत लगाव नहीं हुआ.

पिछले साल अप्रैल का महिना था, जब दो बुलबुल बराबर पेड़ पर आने लगे , गाना गाते, चहचहाते और फिर उड़ जाते. उनकी कलगी और आँख व पूंछ के निचे चटक लाल रंग के रोएं मनमोहक लगते. उनकी गतिबिधियाँ देखकर हमें उम्मीद होने लगी की शायद ये जोड़ा हमारे पेड़ पर अपना आशियाना बनाए. ऐसा ही हुआ. कुछ दिन बाद हम लोगो ने देखा की काफी कम ऊंचाई पर ही कनेर की तीन शाखाओ के जंक्शन पर घोंसला बनाकर रहना शुरू कर दिया. ऐसा लगा कोई मेहमान आ गया. बच्चों को फ़ोन पर सूचना दी गयी. घोसले की फोटो बनाकर बच्चों को भेजा जाने लगा. अब यह भी मिलने मिलाने वालो से बातचीत का एक टॉपिक हो गया था. मई के प्रारम्भ में बुलबुल ने तीन अंडे दिए. अंडे की तस्बीर भी वायरल की गयी. बच्चों को सूचना दी गयी. माहौल काफी खुशनुमा हो गया. १५ – २० दिन के बाद अंडे से चूजे बाहर आ गए . हम लोग दुआएं करने लगे कि उनके चूजे सही सलामत वयस्क हो जाये.

अंडे से चूजे निकालने के बाद बुलबुलों की मुस्तैदी देखने लायक थी. प्रायः एक बुलबुल घोसले के पास होता दूसरा खाने की तलास में जाता. आते ही सीधे घोसले में जाता, चोंच में लाये कीड़े मकोड़े बच्चों को खिलाता. उसके पंहुचते ही दूसरा उड़ जाता और खाना लाकर बच्चों को खिलाता. यह सिलसिला पुरे दिन चलता रहता. हम लोग जब भी घोसले की तरफ जाते तो बुलबुल आक्रामक हो जाते और चूजे अपनी चोंच खोलकर खाने के लिए चिल्लाने लगते. ऐसे माहौल में भी हमने उनकी कई तस्बीरे ली और बच्चों को भेजी.

चूजे तेजी से बढ़ने लगे. देखते देखते उनके पंख निकल आये, लेकिन कोई बाहर निकलने का प्रयास नहीं करता. करीब एक सप्ताह बाद ही उनके पंख दिखने लगे. बुलबुल घोसले के बगल में बैठकर उन्हें पंख फ़ैलाने और फद्फड़ाने का नियमित अभ्यास कराती. बच्चे घोसले के अंदर ही पूरी तन्मयता से पंख फद्फड़ाने का अभ्यास करते. चूजे पुरे अनुशाषित तरीके से घोसले में रहकर अभ्यास करते, बाहर आने का प्रयास नहीं करते. यह सब देखकर हम लोग बिस्मित थे. हमें आभास हो गया की अब जल्द ही किसी दिन बुलबुल अपने बच्चों के साथ कही और चले जायेंगे.

फिर वह दिन भी आ गया. मई का अंतिम सप्ताह या जून का पहला सप्ताह था, धूप काफी तेज थी. तीन चार बजे का समय रहा होगा मेरी पत्नी बाहर का दरवाजा खोली कि खोलते ही बुलबुल ने उनके ऊपर झपट्टा मारा. उन्होंने मुझे बताया, तो मै भी बाहर आया. मेरे उपर भी उसी आक्रामकता से बुलबुल ने झपट्टा मारा. हमने घोसले के पास वाला दरवाजा बंद करके पोर्टिको वाला दरवाजा खोला तो वहा भी बुलबुलों ने झपट्टा मारना शुरू कर दिया. हम लोगो ने दरवाजा बंद कर लिया और खिड़की से देखने लगे. दोनों बुलबुल लगातार उडान भरते रहे और जब निश्चिन्त हो गए की कही से कोई खतरा नहीं है तब एक बुलबुल घोसले के पास आई और दूसरा लगातार उडान भरता रहा.

एक बुलबुल घोसले पर आकर बैठता और कूदकर पास वाली टहनी पर बैठ जाता, फिर वहा से कूदकर तीसरी टहनी पर बैठता, फिर उड़ जाता. ऐसा उसने चार पांच बार करके बच्चों को दिखाया. फिर वह पल भी आया जब बुलबुल फाइनल डेमो दी. उसके पीछे एक बच्चा घोसले से बाहर निकलकर पहली टहनी पर पहुँच गया और मुस्किल से ३० सेकंड के बाद तीसरी डाली पर चला गया. उसके पीछे दूसरा आ गया और फिर तीसरा. पहले ने पुरे विश्वाश से उडान भरते हुए सामने के मकान की रेलिंग पर पंहुंच गया. दूसरी बुलबुल उसकी निगरानी में लगातार उडान भारती रही. उसने रेलिंग से उडान भरी और देखते ही देखते दूर गगन में ओझल हो गया. उसके उड़ने के बाद दुसरे बच्चे ने भी साहस का परिचय देते हुए अपने पंखो पर परवाज भरते हुए दूर क्षितिज में ओझल हो गया.

तीसरा बच्चा कदाचित कमजोर था या साहस की कमी थी, वह निर्धारित आखिरी टहनी से उडान नहीं भर पाया और निचे गिर गया. दोनों बुलबुल उसे साहस और सहारा देते रहे लेकिन वह नहीं उड़ पाया. अंततः वह पोर्टिको में गाड़ी के निचे दुबक गया. अँधेरा हो चुका था. बुलबुल उसे छोड़कर पेड़ पर चले गए. हम लोग भी काफी दुखी थे और तीसरे को लेकर परेशान भी.

दोनों बच्चे, जो उडान भर चुके थे, लौटकर नहीं आये. भोर होते ही बुलबुलों की आवाजे आने लगी, वह अपने बच्चे को खोजने लगे. काफी देर की मसक्कत के बाद तीसरा भी उडान भरने में सफल रहा. उसके उडान भरने के काफी बाद तक दोनों बुलबुल वहां बैठे आवाजे करते रहे, कदाचित एक दुसरे को समझा रहे हों और फिर अनंत की ओर निकल गए.

यह पूरा घटनाचक्र मेरे अंतःकरण को हिलाकर रख दिया. मुझे लगा कि वे बुलबुल कोई सामान्य पक्षी न होकर गीता के ज्ञान से ओत प्रोत कोई मनीषी रहे हो, और कदाचित हमें यह सन्देश देने आए हों कि माता पिता को किस सिद्दत से अपने बच्चों का पालन पोषण करना चाहिए और किस सीमा तक करना चाहिए. उन्होंने अपने बच्चों को अपने पंखो पर परवाज भरने योग्य बनाकर उन्हें अपने सामने गगन की ऊंचाईयों को नापते देख लिया, लेकिन उनके पीछे नहीं गए. उन्हें अपना जीवन जीने के लिए उन्मुक्त कर दिया. उनके अंदर लेषमात्र भी मोह माया नहीं दिखी.

उनके बच्चों का आचरण कदाचित इक्कीसवीं सदी के नौजवानों जैसा रहा, जो उडान भरने के बाद अपने घोसलों में नहीं लौटते, जहाँ माँ बाप उनका इन्तेजार कर रहे होते है. परन्तु मै आशावादी हूँ और आशा करता हूँ कि बुलबुल के बच्चे कभी न कभी मेरे पेड़ पर अपना आशियाना जरुर बनायेंगे.

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