इलाहाबाद में मैं पेशे से हटकर न कुछ सोच पाता हूँ और न ही कुछ लिख पाता हूँ। मैं सम सामयिक विषयों को अपने अनुभव के आधार पर रेखांकित करना चाहता हूँ, उनका समाधान भी चाहता हूँ। परन्तु अभी मैं ऐसी स्थिति में नहीं हूँ कि प्रचलित व्यवस्था को प्रभावित कर सकूं। हां इतना जरूर है कि मैं अपनी लेखनी को कुछ बेहतर कर सकता हूँ।
आज 13 मार्च को इलाहाबाद से मुम्बई के लिए निकला हूँ, अकेला हूँ, साथ बैठे सहयात्री मोबाइल पर गेम खेलने में व्यस्त हैं। मुझे लगा कि मैं भी अपने अतीत के कुछ पन्ने पलट लूँ।
पिछले पचास पचपन साल की अपनी जीवन यात्रा का पुनरावलोकन करता हूँ तो मन में बहुत सारे सवाल उठ खड़े होते हैं। मसलन कि क्या हम यहीं पहुंचना चाहते थे? क्या इसी मुकाम का सपना लेकर हम चले थे या फिर हम यूँ ही चले जा रहे हैं? कहीं हम अपने लक्ष्य से भटक तो नहीं गये हैं या फिर हमने अपने आप को लहरों के सहारे छोड़ दिया कि कहीं तो पहुचेगे ? व्यक्तिगत तौर पर देखता हूँ तो बहुत अफसोस नहीं होता है, लेकिन जब समूह, समाज, देश और दुनिया के दृष्टिकोण से मूल्यांकन करता हूँ तो निराशा होती है।
अपनी अगली पीढ़ियों को देखता हूँ तो सामने पहले से भी अधिक जटिल प्रश्न आकर खड़े हो जाते हैं। मसलन कि क्या हम अपने बच्चों को सही परवरिश, शिक्षा व संस्कार दे सके हैं। क्या उनके लिए हम एक बेहतर दुनिया दे सके हैं।
इन प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में भी जब मैं व्यक्तिगत मूल्यांकन करता हूँ तो भी बहुत निराशा नहीं होती। मैंने हमेशा प्रयास किया कि अपने बच्चों को सही परवरिश दे सकूं। मैं हमेशा इस बात को लेकर सजग रहा कि आज की स्पर्धा के बावजूद बच्चों को विकसित होने का स्वाभाविक परिवेश मिले। उनकी ऊर्जा को कुण्ठित न होने दिया जाए। मैं भाग्यशाली रहा कि मेरी तीनों बेटियां प्रोफेसनल डिग्रियो / नौकरी के साथ दुनिया की दौड़ में शामिल हैं।
जब मैं अपने बचपन को याद करता हूँ और आज की पीढ़ी के बच्चों को देखता हूँ तो मुझे उन पर दया आती है। बहुत ढूँढने के बाद भी मैं उनमें बचपना नहीं खोज पाता हूँ। मैं अपने बचपन में की गई शरारतो, क्रिया कलापो की तुलना जब आज के दौर के बच्चों से करता हूँ तो मुझे इस बात की बेहद पीड़ा होती है कि हम प्रगति के नाम पर अपने बच्चों से उनका बचपन छीन कर उन्हें एक अन्धी दौड़ में झोंक दे रहे हैं, जिसे हमने प्रगति का नाम दिया है। इस दौड़ में हमने उन्हें जीवन के सबसे महत्वपूर्ण आयामों से रूबरू ही नहीं होने दिया। स्पष्ट कहें तो वंचित कर दिया।
हमारे समय में टी वी और मोबाइल फोन नहीं था। गांव में अखबार और इम्प्लायमेन्ट न्यूज़ भी नहीं पहुचते थे। दुनिया से जुडने का एकमात्र साधन रेडियो होता था। हम आल इंडिया रेडियो आकाशवाणी व बी बी सी लन्दन की हिन्दी सेवा से प्रसारित होने वाले समाचार सुनकर बड़े हुए। जीवन आज की तरह इन्टरनेट, पबजी और गूगल में उलझा हुआ नहीं था और न ही भविष्य की चिंताओं को लेकर आशंकित।
हम भी बचपन में सपने देखते थे। लेकिन वह सपने भविष्य की चिंताओं के नहीं होते थे। हमारी माँ, काकी चाची, दादी नानी बचपन में हमें परियों की , राजकुमारी की, राजकुमार की और राक्षसों की कहानिया सुनाती थी। किस तरह राजकुमार तमाम बाधाओं को पार करते हुए राजकुमारी की जान बचाता था, किस तरह अपनी प्रजा की रक्षा करता था। उन कहानियों का नायक बेहद उदार होता था, दयालु होता था, निर्भीक और साहसी होता था, नीर क्षीर विवेक वाला होता था।
हमारी माताए कम पढ़ी लिखी थीं या अनपढ़ थीं लेकिन उन्हें रामायण, महाभारत व पुराणों की अनगिनत कथाएं याद थीं। उन्हें भारतीय वीरों, वीरांगनाओ व इतिहास की लोमहर्षक घटनाओं की अनगिनत कथाएं याद थीं। वह हमें राणा प्रताप, शिवाजी, लक्ष्मी बाई, पन्ना धाय जैसे किरदारों की कथाएं सुनाती थीं।
हम कदाचित इन्जीनियर, डाक्टर या जज बनने के सपने का बोझ लेकर बड़े नहीं हुए। आगे चलकर क्या बनना है, यह तो थोड़ा बहुत दसवीं कक्षा के बाद सोचना शुरू किया।
बचपन में तो हम राजकुमार और कहानियों के नायक के किरदार को जीते रहे। उन्हीं के गुणों को आत्मसात करते रहे। न होमवर्क की चिंता न टेस्ट की। हां स्कूल में डण्डे जरूर पड़ते थे। उन्हीं डण्डो का प्रताप था कि हमे गदहिआ गोल यानि आज के अग्रेंजी माध्यम के एल के जी में पहाड़ा, गिनती, अक्षर ज्ञान, जोड़ घटाना सब आ जाता था। बड़ी गोल यानि यू के जी में तो हमें पौवा, अद्धा, पौना, सवैया, डेढा, अढैया सब रट जाता था। दो तक जाते जाते हम बड़े से बड़ा जोड़ घटाना, गुणा भाग सब कर लेते थे।
मेरा स्कूल घर से लगभग तीन किलोमीटर दूर था। हमारे बच्चे तो शायद विश्वास भी न करें, लेकिन ये सच है कि हम खेलते खेलते, बेर आंवला आम कैत तोडते तोडते स्कूल पहुंच जाते थे। दोपहर में तीन किलोमीटर दौडते हुए घर आते थे, खाना खाते थे और दौडते हुए स्कूल पहुंच जाते थे।
स्कूल से आते ही पटरी बस्ता फेकते थे, जल्दी जल्दी खाना खाते थे और भागते हुए खेल के मैदान में पहुंच जाते थे। अंधेरा होने तक खेलते थे। लौटकर थोड़ा पढ़ाई लिखाई हो गयी। जल्दी से खाना खाते थे, फिर बड़े बुजुर्गों के पास बैठ जाते थे। उनके पैर दबाते, कहानिया सुनाने की जिद करते। कहानियाँ सुनते सुनते सो जाते थे। पढ़ाई के लिए स्कूल में कुटाई होती थी लेकिन घर पर कोई दबाव नहीं होता था।
सुबह उठते ही दातुन करते और बासी खाने पर टूट पडते। जाड़े के दिनों में तो हफ्तों तक नहीं नहाते थे। रविवार के रविवार दोपहर में धूप में नहाते थे। कभी कोई इन्फेक्शन नहीं होता था। माँ नहाने के लिए कभी जोर नहीं देती थी।
आज देखकर हंसी आती है कि कोई बच्चा गिर गया या खेलते हुए कोई चोट आ गई तो पूरा तहलका मच जाता है, पूरा परिवार सहम जाता है। हमारे दिनों में हमारे पैर की एक दो ऊंगलियां, घुटने, हाथ की कुहनिया फूटे ही रहते थे। माँ हल्दी प्याज पकाकर लगा देती थी, थोड़ा ठीक होते ही खेल के मैदान में उतर जाते थे, फिर फूट जाता था । बड़े होकर क्या बनेंगे, इस पर कभी सोचा भी नहीं।
किसी की फल फूल या फसल तोड़ कर खा लिया या नुकसान कर दिया, तो कभी इसके लिए पिटाई नहीं होती थी। पहले तो कोई शिकायत नहीं करता था और शिकायत आ भी गयी तो बाबा, पिताजी या जो कोई होता, उसकी भरपाई कर देता था।
आज की तरह स्कूल डायरी नहीं होती थी न तो रिपोर्ट कार्ड बनता था। न अभिभावक स्कूल से नियमित अपडेट लेते थे। बड़े मजे के दिन थे। कई बार तो हम सभी बच्चे गांव से बाहर निकल कर बगीचे में एक दो घंटे खेल कूद कर सभी सहपाठियो के साथ घर लौट आते थे और घर पर कोई न कोई झूठ बोला जाता था। किसी मास्टर साहब के किसी रिश्तेदार की मौत की झूठी खबर। और हम सभी बच्चों में गजब की एकता होती थी। सभी बच्चे एक ही बात बताते थे।
रिजल्ट वाले दिन तो और भी रोचक होते थे। हम गांव के बाहर बगीचे में बैठकर पूरा रिजल्ट बना देते थे। क्लास में किसको कौन सी पोजीशन मिली है, वह बगीचे में ही तय हो जाता था। सभी को रटा दिया जाता था। सभी बच्चे एक स्वर में वही पोजीशन गांव में बताते थे। चूंकि अपने गांव की गैंग का मै ही नेतृत्व करता था, मै हमेशा क्लास में टाप करता था।
प्राइमरी से ही मेरे गांव की गैंग का स्कूल में दबदबा था। हमारे गाँव के लगभग 20-30 बच्चे एक साथ पढते थे। सभी में गजब की एकता होती थी। मैं तीसरी कक्षा में पढता था जब पडोसी गांव के हमसे एक साल सीनियर बच्चे ने उसी गांव के एक सीनियर को पीटने के लिए मुझसे कहा। दोनों से हमारे सौहार्दपूर्ण रिस्ते थे। एक के पेड़ से हम लोग प्रायः बेर और कैंत तोडते थे और जिसे पीटना था उसके पेड़ से इमली तोडते थे। हम बचपन से इंटेलिजेंट थे, हमने उससे कहा कि हम दूसरे को क्यों पीटे। वह मुझसे ज्यादा इंटेलिजेंट था। उसने मुझसे कहा कि यदि आप दूसरे को पीटेंगे तो मैं आपको चार आना यानि पचीस (25) पैसा दूंगा। वह मेरे जीवन में अपनी बदौलत कमाई का पहला अवसर था। मैंने तुरंत स्वीकार कर लिया। उस समय एक पैसे का एक लेमनचूस (टाफी) मिलती थी। मैं दूकान गया, चार आने में पचीस (25) लेमनचूस लिया। अपने सभी योद्धाओं को बुलाया, उनको लेमनचूस खिलाया, सारी बात बताया और छुट्टी के बाद दूसरे की पिटाई की योजना बन गई। अगले को कुछ आभास हो गया, वह छुट्टी होते ही अपने घर की ओर भागा।वह आगे आगे, हम और हमारी सेना पीछे पीछे। करीब एक किलोमीटर की दौड़ के बाद शिकार को पकड़ लिया गया और मिशन पूरा हुआ।
मैं पढ़ाई के लिए स्कूल में पिटाई का प्रतिकार कभी नहीं किया, लेकिन जब मुझे यह लगा कि गलत कारण से टीचर ने मेरी पिटाई की है तो मैं प्राइमरी स्कूल में दो तीन मौकों पर अपने मास्टर साहब की धोती बुरी तरह से फाड़ दिया था। छठी कक्षा में भी ऐसा एक मौका आया, जब मैं अपने एक शिक्षक की कुटाई करने पर अमादा हो गया, लेकिन उसके बाद मैंने अपने गुरूओं के प्रति कभी प्रतिकार नहीं किया। सारी गलतियो के बावजूद भी मैं अपने शिक्षकों का सबसे चहेता शिष्य रहा। शायद बचपन में गलत के प्रतिकार का भाव ज्यादा प्रबल था। मैं जैसे जैसे बड़ा हुआ तो परिवार के लिए, गांव के लिए, समाज के प्रति मेरा नजरिया बदलता गया। बहुत से लोग जो मुझे जानते हैं, उन्हें मालूम है कि आज भी जो लोग मुझसे सबसे अधिक शत्रुता रखते हैं, मैं उनका भी सम्मान करता हूँ, उनका पैर छूकर आशीर्वाद लेता हूँ और उसके बाद उनका डटकर विरोध भी करता हूँ।
बचपन में मै भी थोड़ा उद्दण्ड था। कई बार मैं लोगों को अनायास पीट देता था, धीरे धीरे सुधर गया। अब वह लोग सामने पडते हैं तो मेरे अन्दर पश्चाताप का भाव पैदा होता है परन्तु वे लोग उस समय मुझे बच्चा समझ कर प्रतिकार नहीं किए। आज मैं उन लोगों का बहुत सम्मान करता हूँ, वे लोग भी मुझे बेहद स्नेह करते हैं। कभी-कभी मुझे बचपन की शरारत की याद भी दिलाते हैं। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि प्रतिकार से बच्चों को नहीं सुधारा जा सकता है। सतत् मूल्यो का रोपण करते हुए हमें धीरे धीरे उनकी नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में बदलना चाहिए।
मैं अपनी बेटियों को हमेशा दबंगई का पाठ पढ़ाने की कोशिश करता रहा। हमेशा उनको सिखाता रहा कि बद्तमीज़ सहपाठी, सहकर्मी या किसी अन्य की कुटाई करने से परहेज न करें। कुटाई करके मुझे बताएंगी, तो मुझे ज्यादा खुशी होगी। लेकिन उन सबके अन्दर यह संस्कार नहीं आ पाया।
एक बार की बात है मेरी छोटी बेटी दुसरी या तीसरी में पढ़ती थी, उसके क्लास का एक बच्चा उसकी टिफ़िन छिन कर खा जाये और पिटाई कर दे। वह घर आकर बताए। मैं उसे जितना भी सिखाकर भेजू कि उसको यूँ मारना, यूँ पीटना, लेकिन सब बेकार। मेरी बड़ी बेटियां भी उसी केन्द्रीय विद्यालय में बड़ी कक्षाओं में पढ़ती थी। उनको भी सिखाकर भेजता लेकिन वे अपने से छोटे बच्चे की पिटाई का दोष नहीं लेना चाहती थी। सम्बंधित क्लास टीचर को कई बार शिकायत भिजवायें, लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ। अन्ततः एक दिन मैं उसके स्कूल गया और उसके क्लास टीचर को बुलाया और पूछा कि आप उस शरारती बच्चे को सुधारने के लिए क्या कदम उठाए। मैंने उन्हें अपना इतिहास बताया और उन्हें समझाया कि आज के बाद यदि वह बच्चा मेरी बेटी का टिफ़िन छिना या पीटा तो मैं उस बच्चे से तो कुछ नहीं कहूँगा लेकिन आपकी पैन्ट फाड़ कर आपको चड्डी पर घर भेजूंगा। खैर उसके बाद मास्टर साहब ने उसे सुधार दिया।
शायद मैं विषयान्तर हो गया। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हम प्रगति के नाम पर अपने बच्चों से उनका बचपन तो नहीं छीन ले रहे हैं। मुझे तो ऐसा ही लगता है कि जो लोग साधन सम्पन्न हैं, वह अपने पूर्वाग्रह या दुराग्रहों के चलते अपने बच्चों के साथ अन्याय कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे बच्चों की है, जिनका जीवन बेहद अभाव और निर्धनता में व्यतीत हो रहा है। उनके पास जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी साधन नहीं है। ऐसे ज्यादातर बच्चों के अभिभावक अनपढ़ व साधन विहीन हैं। अनपढ़ होना कोई अपराध नहीं है। अनपढ़ लोग भी बेहद समझदार होते हैं। लेकिन उन्हें इस बात का कोई अधिकार नहीं है कि वह अपने बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करें।
हम सभी की यह नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी है कि हर बच्चे को उसके हिस्से का बचपन मिले, उसे उपयुक्त शिक्षा और रोजगार का अवसर मिले।
हम स्वयं को एक सभ्य समाज का व्यक्ति होने का झूठा दावा भले कर ले लेकिन जब तक इस देश के बच्चे भूखे हैं, नंगे हैं, कुपोषित हैं, अशिक्षित हैं, बाल मजदूर हैं, हम सभ्य कहलाने योग्य नहीं हैं।
सरकार हमसे आपसे कर वसूल कर बहुत बड़ी धनराशि बच्चों के कल्याण के लिए खर्च कर रही हैं लेकिन उसका बहुत बड़ा हिस्सा हमारे लोकतंत्र के प्रहरियों की जेब में चला जाता है और शोषित वंचित वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं। क्या हमारी कोई भूमिका नहीं है, कोई जिम्मेदारी नहीं है। हम सभी व्यवस्था को जिम्मेदार ठहरा कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। जब चुनाव की घड़ी आती है तो हम सभी अपने निहित स्वार्थ के लिए, अपनी सारी नैतिक जिम्मेदारियों की तिलांजली देकर प्रायः निकृष्टतम लोगों को अपना भाग्य विधाता बनाकर भेजते हैं। हम जब तक इसके लिए स्वयं को जिम्मेदार मानकर सुधार के लिए आगे नहीं आएंगे, तब तक हम अपने बच्चों के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे।
एक दिन मेरी बड़ी बेटी मुझसे एक प्रश्न की कि हमारे जीवन में पैसे का कितना महत्व है। मैंने उसे चार पुरुषार्थो धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के माध्यम से समझाने का प्रयास किया कि जीवन में पैसे का महत्वपूर्ण स्थान है। उसके बिना हम न तो शिक्षा प्राप्त कर पाएंगे न अपने गृहस्थ धर्म का पालन कर पाएंगे और न ही मोक्ष प्राप्त कर पाएंगे। हमारे मनीषियों ने अर्थ को महत्वपूर्ण माना है लेकिन कितना कि "साईं इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय"।
पैसा नीतिपूर्वक कमाओ और विवेकपूर्वक खर्च करो।
यह बेहद आपत्ति जनक है कि हमारे देश के अमीर लोग अपनी पत्नी के जन्मदिन पर दी जाने वाली पार्टी पर 300 करोड़ रुपये खर्च कर देते हैं। मैं इसे अपराध समझता हूँ। जिस देश के करोड़ों बच्चे भूखे हैं, नंगे हैं, शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं, कुपोषित हैं, बेसहारा हैं, उस देश में संसाधनो का ऐसा दुरूपयोग दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि पाप है।
मेरी बेटियां प्रायः मुझसे कहतीं हैं कि आप क्यों नहीं समाज के लिए कुछ करते हैं तो मैं उनसे यही कहता हूँ कि जिस दिन मैं अपनी प्राथमिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाऊंगा, तभी ईमानदारी से समाज के लिए कुछ कर पाऊँगा और लोग भी मुझे बहुरुपिया नहीं समझेंगे।
लगता है कि मैं फिर से विषयान्तर हो गया और माइक्रो से मैक्रो की तरफ चला गया। खैर एक और जटिल प्रश्न मुझे दिन प्रति दिन कचोटता है कि क्या अक्षर ज्ञान या डिग्री ही शिक्षा का मापदंड है। आज जब मैं वयस्क बच्चों को सड़क पर स्टंट करते देखता हूँ, नुक्कड़ चौराहों पर आती जाती लडकियों महिलाओं पर असभ्य कमेन्ट करते देखता हूँ तो बहुत अफसोस होता है उनकी सोच पर,उनकी परवरिश पर। अनुशासनहीनता , असभ्यता , कानून के उल्लंघन को ही शायद ऐसे लोग अपनी मेरिट समझते हैं। दुखद है कि हम लोग भी ऐसे लोगों का तब तक प्रतिकार नहीं करते, जब तक कि बात अपने उपर न आ जाए।
हमारे देश में कानून भी केवल शरीफ़ और सम्वेदनशील को ही डराता है। जब तक हम अपने बच्चों को अनुशासन का महत्व नहीं समझाएगे , कानून का सम्मान करना नहीं सिखाएंगे, समाज की मर्यादा का भान नहीं कराएंगे, उन्हें अपने गौरवशाली अतीत से रूबरू नहीं कराएंगे, उन्हें पर्यावरण का सहचर नहीं बनाएंगे , हमे व्यक्तिगत तौर पर, समाज के तौर पर, देश और राष्ट्र के तौर पर शर्मिंदा होना पडेगा।
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