ऐसी त्रासदी की कल्पना कदाचित किसी ने नहीं की थी I भौतिकवाद की अंधी दौड़ और पागलपन की हद तक बढ़ते शहरीकरण को देखते हुए, यह जरुर लगता था कि २१ वीं सदी विकास के साथ साथ देर सबेर विनाश और प्रलय जरुर लाएगी, लेकिन उसका ट्रेलर इतना जल्दी, इस रूप में हमारे सामने आने लगेगा, कम से कम मैंने ऐसा नहीं सोचा था I
आज स्थिति ये हो गयी है कि हम जिन्दा बचे रहने को ही सबसे बड़ी इनायत और उपलब्धि समझ रहे है I वो तमाम लोग, जो बड़े बड़े शहरों में मकान - दुकान बनाये थे, रोजी रोटी का संसाधन बनाये थे, उसे छोड़कर अपने पुश्तैनी गांवों में आकर रहने लगे हैं और साथ में कोरोना की सौगात गांवों तक भी पहुंचा दिए हैं I
ऐसी त्रासदी २० वीं सदी के प्रारंभ में आयी थी, जिसके किस्से हम अपने बड़े बुजुर्गो से बचपन में सुनते थे I बताया जाता है कि हमारे देश में १९२० - २५ के आस पास प्लेग की महामारी से लाखों नहीं करीब सवा करोड़ लोगों की जान चली गयी I गाँव के गाँव श्मशान बन गए I लेकिन उस महाविनास काल में भी लोगों ने एक दुसरे को नहीं छोड़ा I लोगों ने लोगों को नहीं लूटा I कफ़न का व्यापार नहीं हुआ I लोगों को चिता तक ले जाने के लिए किराये के कंधे नही लेने पड़े थे I लोगों ने सामाजिक सारोकार नहीं छोड़ा, बेशक दुनिया छोड़ गए I
अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों और विकास पर हम इतने मदहोश थे की हम इस त्रासदी की आहट भी नहीं सुन पाए I महामारी पहुँचने से पहले ही मुर्दाखोर गिद्धों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया I मैं नहीं समझता कि दुनिया में कोई ऐसा देश होगा, जहाँ इस तरह की लूट- खसोट, भ्रष्टाचार, बेईमानी और अनैतिक मुर्दाखोरी हुयी हो I क्या सरकार, क्या सरकारी महकमा, क्या डॉक्टर, क्या अस्पताल संचालक , क्या एम्बुलेंस संचालक, क्या दवा विक्रेता , क्या फल-फूल-सब्जी विक्रेता, क्या राशन पानी के दुकानदार, क्या कफन विक्रेता, हर किसी ने जमकर जीभर कर लोगों को लूटा I ऐसी संस्थागत अमानवीय लूट की कल्पना नहीं की जा सकती I
एक नया नारा भी खूब मकबूल हो गया, "आपदा में अवसर "I इसे लोगों ने जीवन का मूल मन्त्र बना लिया और यह बेहद दुर्भाग्य की बात है कि कुछ लोग इंसानियत को कलंकित करते हुए लुटे पिटे मजबूर लोगों को हर तरह से लूट रहे हैं I
मैंने हिंदी गद्य में एक पाठ पढ़ा था, "रुदाली' I इसमे यही था कि कुछ इलाकों में कुछ बड़े लोगों के मर जाने के बाद उनका शोक मनाने और रोने के लिए किराये पर रुदालियाँ बुलाई जाती थी, जो जनाजा निकलने तक रोने का नाटक करती थींI लेकिन मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि एक ऐसा भी समय आयेगा कि लाश को चिता पर रखने के लिए किराये पर कंधे मिलेंगे I यह बेहद दुखद है कि श्मशान घाटों पर शव को चिता पर ले जाने के लिए 4 से ५ हजार में किराये के कंधे मिल रहे हैं I हमने मानवता को शर्मशार कर दिया हैI
आज कई दिनों से इस तरह की खबरे आ रही है कि लोग अपनों की लाश का अंतिम संस्कार भी नहीं कर पा रहे हैं और मजबूरी में नदियों में प्रवाहित कर दे रहे हैं या नदियों के किनारों पर कम गहराई में दफना रहे है और ऐसी लाशों की जो दुर्दशा हो रही है, वह तो है ही, ये हमारी जीवनदायिनी नदियों को भी प्रदूषित कर रही है I
मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस है कि हम एक राष्ट्र के रूप में, एक देश के रूप में , एक समाज के रूप में, एक नागरिक के रूप में अपने दायित्वों के निर्वहन में विफल रहे I हमने मानवता को शर्मसार कर दिया I
हमें सरकार, सरकारी तंत्र और नौकरशाही की जबाबदेही जरुर तय करनी चाहिए, लेकिन उससे पहले हमें अपने खुद के चरित्र और आचरण की नीर क्षीर मीमांशा करनी चाहिए , अन्यथा न तो मानवता बचेगी न हमI
अब भी समय है कि हम मानवोचित आचरण और व्यवहार अपनाएं I
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