उत्तर स्पष्ट है - नहीं, नहीं और नहीं।
हमने विगत कुछ दसकों मे अपनी सोच, समझ और संस्कारों का ऐसा कबाड़ा किया है कि इसका दंश राष्ट्र, देश और समाज सदियों तक भोगेगा। यह मेरा शाप नहीं मेरी अन्तर्वेदना है, मेरा अनुमान है कि हम एक राष्ट्र के रूप मे, एक देश के रूप मे और एक समाज के रूप में कभी भी सक्षम, समर्थ और सम्भ्रान्त नहीं बन पाएंगे।
बांटो और राज करो, यह हमारी राजनीति का मूलाधार हो गया है। राजनीति ने समाज का इस कदर बटवारा किया है कि हम हिन्दू, मुस्लिम, ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया, यादव, जाट, जाटव आदि से उपर नहीं उठ पा रहे। लोग यदि कोशिश भी करें तो हमारे राजनीतिज्ञ इस खाईं को पटने नहीं देते। राजनीति ने समाज की हर ईकाई को खण्ड खण्ड कर दिया है। एक परिवार के सदस्य और यहां तक कि एक बिस्तर पर सोने वाले पति पत्नी के बीच तलवारें खिंच रही हैं।
एक नागरिक के तौर पर हम बिना किसी योग्यता के, बिना किसी मेहनत के, बिना किसी पुरुषार्थ के रातों रात अमीर होना चाहते हैं। यह कुसंस्कार भी विगत कुछ दशकों में तेजी से बढ़ा है। इसके लिए हम किसी भी स्तर तक गिरने के लिए सहर्ष तैयार हैं। यहां तक कि हम सड़क पर तड़प रहे घायल को भी लूट सकते हैं, अस्पताल के अन्दर या बाहर अन्तिम सांस ले रहे मरीज की लंगोट भी छिन सकते हैं और यहां तक कि मुर्दों के कफन भी लूट कर उनका व्यापार कर सकते हैं।
आखिर हमारे गिरने की कोई तो सीमा होनी चाहिये, लेकिन नहीं साहब हम तो गिरने का रिकॉर्ड बनाएंगे। उस सीमा तक गिरेंगे जहाँ तक आपने सोचा भी नहीं होगा। हम दिन रात कोसते रहते हैं कि इस राष्ट्र, देश या समाज ने हमें क्या दिया। हमारी जेहन में एक बार भी यह खयाल नहीं आता कि आखिर हमने इस राष्ट्र, देश और समाज को क्या दिया।
हम केवल दूसरों को सुधारेंगे।खुद कभी नहीं सुधरेंगे। सारे नियम कानून का पालन दूसरे तो जरूर करें लेकिन हम इनका पालन कभी नहीं करेंगे। सभी अनुशासित रहें लेकिन हम कोई अनुशासन नहीं मानेंगे।
एक नागरिक के कर्तव्यों के निर्वहन की बात तो बहुत दूर, मानवता भी हमारे कुकर्म देखकर शर्मसार हो रही है। जानवर भी हमारे बेगैरत कुकर्मों को देखकर स्तब्ध हैं।
हम इतने बेगैरत हैं कि अपने जीवन में जरूरी आक्सीजन के लिए एक पेड़ नहीं लगाया न अपने अन्तिम संस्कार के लिये लकडिय़ों का इन्तजाम किया और बाप दादा ने जो पेड़ लगाए थे, उसे भी बेचकर प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाले संसाधन जुटाए।
दिन रात चोरी, लूट, झूठ फरेब करके दूसरों के हक हिस्से हड़पते रहे। लेकिन कुदरत के आगे किसी का जोर नहीं चलता। आज कुदरत ने दिखा दिया कि कोई जितना भी धनवान रहा हो, कितना भी नामचीन रहा हो चाहे कितना भी ताकतवर रहा हो, उसे सम्मानजनक अन्तिम संस्कार भी नसीब नहीं हुआ।
ये तो कुछ चन्द लोग हैं, जिनकी वजह से अभी भी मानवता वेन्टीलेटर पर बनी हुई है। बहुत अधिक सांसे नहीं बची हैं। अब भी समय है, हम एक मनुष्य होने के, एक नागरिक होने के और एक सामाजिक प्राणी होने के दायित्व को समझें। प्रकृति का सम्मान करें। अपने धर्म और दायित्व का सम्यक निर्वहन करें तो ही हम इस त्रासदी से सुरक्षित निकल पाएंगे और अपनी मेहनत से देश और राष्ट्र का गौरव भी पुनर्स्थापित कर सकेंगे।
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