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Writer's pictureMan Bahadur Singh

अन्तिम दौर में प्रकृति के पास रहने की अभिलाषा की ओर एक कदम

Updated: Jun 14

दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा, मस्ती भरे मन की, भोली सी आशा।

मित्रों हमने अपने जीवन का प्रथम एक तिहाई कालखंड गांव में प्रकृति के नजदीक बिताया । लेकिन वह दौर राजनीतिक वैमनष्यता, परस्पर दुश्मनी और राग द्वेष से आच्छादित रहा।


द्वितीय एक तिहाई यानी 20 वर्ष का कालखंड सेना की सेवा में जंगलों, पहाड़ों, ग्लेशियरों और मरुस्थलो में बीता, जिसे मैं अपने जीवन का श्रेष्ठतम कालखंड समझता हूं।


तीसरा एक तिहाई कालखंड प्रयागराज में बीत गया। मुझे इस बात का बेहद संतोष रहता है कि वकालत के पेशे में रहते हुए और धनोपार्जन करते हुए हम हजारों हजार लोगों को न्याय दिलाने में सहायक रहे।


शहर यानी कंक्रीट का जंगल कभी भी मेरा सहज आशियाना नहीं रहा और शायद यही वजह रही कि छुट्टियों में मैं तीर्थाटन या देशाटन पर निकल जाता हूं। मेरा एक छोटा सा सपना था कि मैं गांव में पेड़ पौधों, वनस्पतियों से घिरे एक ऐसे इकोसिस्टम में रहूं, जहां नित के बखेड़े ना हों, राजनीतिक या व्यक्तिगत राग द्वेष न हो कोई बैर भाव न हो।


अपने इस छोटे से सपने को साकार करने के लिए मैं इलाहाबाद स्थित अपने आवास से 40 किलोमीटर दूर कौशांबी में 2 बीघा जमीन का भूमिधर दर्ज हो गया हूं, जहां धीरे धीरे वह इकोसिस्टम बना सकूंगा, जहां वकालत से रिटायर होने के बाद प्रकृति के साथ रह सकूं। हमारे साथ हमारे कनिष्ठ सहयोगी भी 2 बीघा लिए हैं।


यह सब आप मित्रों, शुभचिंतकों व परिजनों के सहयोग, शुभकामना और आशीर्वाद से संभव हो सका।

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