top of page
Writer's pictureMan Bahadur Singh

पारंपरिक मिथक

हास उपहास मे ही सही, एक गम्भीर विषय (कड़ाही मे खाना खाने वालों की शादी में आंधी व बरसात आने का मिथक ) उठा। और मैं फुर्सत मे भी हूँ।


हम भारतवासी भले ही अपने परम्परागत ज्ञान, विज्ञान, कहानियों, कथाओं, खान पान, पूजा पाठ, पद्धतियों या किम्वदन्तियों का हास उपहास उड़ाएं, लेकिन नासा और उसकी जैसी पाश्चात्य संस्थान हमारी परम्पराओं और पद्धतियों पर हमेशा शोध करती रही हैं और वह हमारी परम्पराओं व पद्धतियों की वैज्ञानिकता को भी बेहतर समझती हैं। ये अलग बात है कि हम इन्हें समझने की बजाय इनका उपहास उड़ाते रहते हैं।


एक समसामयिक घटना से अपनी बात शुरू करता हूँ। हमारे यहां हिन्दू धर्म में यह परम्परा रही है कि जब हम किसी के अन्तिम संस्कार में सम्मिलित होने के बाद घर पहुंचते हैं तो दरवाजे के बाहर ही हमें काली मिर्च और गुनगुना पानी दिया जाता है और हम काली मिर्च को चबाकर गुनगुने पानी से कुल्ला करते हैं। घर मे प्रवेश से पहले बाहर ही अपने सारे कपड़े निकालकर रख देते हैं और बाहर ही स्नान करते हैं, तब घर के अन्दर प्रवेश करते हैं।


मृतक के शव के साथ रहकर क्रिया कर्म व मुखाग्नि देने वाले व्यक्ति को दस दिन तक अलग रहना होता है। वह स्वयं अलग बनाता खाता है, अलग सोता है, उसे कोई स्पर्श नहीं करता। दसवें दिन उसका शुद्धिकरण होता है। मृत्यु के बाद पूरा घर, पिंड अशुद्ध माना जाता है। तेरहवें या चौदहवें दिन हवन यज्ञ के बाद घर शुद्ध होने के बाद सामूहिक भोजन व निवास के योग्य माना जाता है।


यह परम्परा हमारे यहां हजारों वर्षों से चलती रही है। हो सकता है कि उसमें कुछ अनावश्यक आडम्बर भी जुड़ा हो, लेकिन मूल सिद्धांत कितना वैज्ञानिक है, आज कोरोना त्रासदी ने दुनिया के अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति को भी समझा दिया। दुनिया ने आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रतिपादित किया है कि बाहर से आने के बाद कपड़े बाहर निकाल कर, बाहर स्नान कर के घर में प्रवेश करे। संक्रमित व्यक्ति को 10 से 14 दिन आइसोलेशन मे रखा जाए। 14 दिन के बाद ही उसे असंक्रमित समझा जाए।


हमारे पूर्वज हजारों साल पहले वायरोलॉजी, इसके प्रभाव और बचाव के उपायों के बारे में जानते थे। ज्ञान सीमित लोगों के पास था और बहुसंख्य आबादी अनपढ़ थी, इसलिए इसे पूजा पाठ और कर्मकाण्ड के रूप में स्थापित किया गया।


जब हम पूजा पाठ करते हैं तो, पूजा सामग्री जुटाई जाती है। पूजा पाठ मे जिन पेड़ पौधों, वनस्पतियों, खाद्यान्न का महत्व है, जरा उनपर एक दृष्टि डालिए। आम की पत्ती, आम की लकड़ी, बेलपत्र, पीपल, नीम, बांस, केला, शमी, फल फूल, दूब, तुलसी, हल्दी, चन्दन, तिल, जौ, गाय का दूध, दही, घी, गोबर, गौमूत्र, शहद, पान, सुपारी, नारियल, भांग, धतूरा वगैरह। हमारे यहां अलग अलग पूजा पर्वों को अलग अलग पेड़ पौधों वनस्पतियों व खाद्यान्नों, जीव, जन्तुओं से जोड़ा गया।


हम इन पूजा सामग्रियों के माध्यम से न केवल अपनी भावनाओं का समर्पण करते हैं बल्कि इन समस्त वृक्षों, वनस्पतियों, खाद्यान्न व गाय के संरक्षण व संवर्धन का संकल्प भी लेते हैं। इन पेड़, पौधों, वनस्पतियों, खाद्यान्नों, जीव, जन्तुओं की वैज्ञानिकता का महत्व हमें मालूम हो न हो लेकिन नासा और नासा जैसी तमाम वैज्ञानिक संस्थान इन पर शोध करके इनकी वैज्ञानिकता को समझ चुके हैं। न केवल समझ चुके हैं बल्कि इनके तमाम प्रोडक्ट का पेटेंट कराकर हमें ऊंचे दामों पर बेच भी रहे हैं और हम अपने परम्परागत ज्ञान विज्ञान का हास परिहास उड़ाने से उपर नहीं उठ पा रहे हैं।


यह एक सोची समझी साजिश है। हमें अपने इतिहास, अपने संस्कार, अपनी परम्पराओं, अपने परम्परागत ज्ञान विज्ञान, अपने धर्म, संस्कृति से विचलित कर के कुण्ठित किया जाए और हमें विदेशी ज्ञान, विज्ञान, व उत्पादों का गुलाम बनाया जाए।


खैर बात शुरू हुई थी कड़ाही मे खाना खाने वालों की शादी में आंधी व बरसात आने के मिथक से। मेरा जन्म व पालन- पोषण एक संयुक्त किसान परिवार मे हुआ। 25-30 सदस्यों का परिवार था। दूसरे परिवार भी ऐसे ही थे। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि परिवार में प्रायः वही बहन, बेटियां या बहुएं कडाही मे खाती हैं, जिन पर पूरे परिवार को खिलाने की जिम्मेदारी होती है। वही सबसे अन्त मे खाना खाती हैं और उन्हीं को बर्तन भी धोने होते हैं। हम दोपहर में 10 से 12 बजे के बीच खा लेते हैं, रात मे 8 बजे तक खा लेते हैं लेकिन संयुक्त परिवारों में महिलाओं का दोपहर का भोजन प्रायः 3 बजे और रात में 10- 10-30 बजे तक होता है। महिलाओं खासकर खाना बनाने और खिलाने वाली बहन बेटियों की जब तक खाने की बारी आती है तो उस समय तक कडाही मे थोड़े मोड़े मसालों के अलावा बहुत कुछ बचा भी नहीं होता है। लेकिन वह यह दिखाना भी नहीं चाहती है कि उसके लिए कुछ नहीं बचा है। थाली में निकालेगी तो लोग देख लेगें कि उसके लिए कुछ नहीं बचा है, शायद यह भी एक कारण हो। चूंकि उन्हें ही बर्तन भी धोना रहता है, वह कडाही मे ही खा लेती हैं कि एक बर्तन अनावश्यक धोने से बच जाएं।


इस परम्परागत कहावत या किम्बदन्ती के आधार पर कडाही मे खाने का निषेध किया गया है। मुझे लगता है कि उसके पीछे सामाजिक और वैज्ञानिक दोनों ही कारण हैं। एक तो यह कि अन्त मे खाने वाले सदस्य के लिये भी पर्याप्त भोजन हो। जहाँ तक वैज्ञानिक कारण की बात है, भोजन बनने के 5-6 घंटों के बाद कडाही की सतह पर चिपका मशाला कडाही की धातु के साथ प्रतिक्रिया करके उस भोजन को असन्तुलित व विषाक्त करता है।

मैं नहीं जानता कि हिन्दुस्तान मे इस विषय पर कोई सामाजिक या वैज्ञानिक शोध हुआ है या नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि नासा व दुनिया के वैज्ञानिक संस्थान भारत की परम्पराओं को गम्भीरता से लेते हैं और उन पर शोध करके लाभान्वित होते रहे हैं।


हमें अपनी परम्पराओं के मूल मर्म को समझने की आवश्यकता है। उनमें आए विचलनों व विकृतियों को हटाकर, उन्हें परिमार्जित रूप स्वरूप मे अपनाने की आवश्यकता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत हजारों साल से ज्ञान, विज्ञान और अध्यात्म का केन्द्र रहा है।


हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत कभी सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था। पहली सदी से लेकर सन् 1000 ई. तक विश्व की कुल जीडीपी का 32% हिस्सेदारी भारत की थी। सन् 1700 ई. मे भी हमारी हिस्सेदारी 24% थी, जो निरन्तर लूट के बाद सन् 1947 मे महज 3% रह गई थी। हमें अपनी सभ्यता, संस्कृति व परम्पराओं को बनाए रखने का निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए।

41 views0 comments

Comentários


bottom of page