top of page
Writer's pictureMan Bahadur Singh

भारत में बढ़ती सर्व विषय विषेशज्ञता

Updated: Jun 13, 2024

मित्रों मैं बहुत बुजुर्ग नहीं हूँ। हमारे पिता जी का जन्म सन् 1930 के आसपास हुआ था। मेरा जन्म 1965 का है अर्थात मात्र 56 (वर्ष) का हूँ। कह सकते हैं कि मैं या मेरे आयुवर्ग के लोग आजादी के बाद की दूसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। 5 वर्ष की उम्र यानी 1970 से लेकर अब तक की परिस्थितियां कमोबेश मुझे याद हैं।


जब हम बच्चे थे, तो गिने चुने डाक्टर, वैद्य व हकीम हुआ करते थे। अस्पताल भी गिने चुने हुआ करते थे। मुझे याद है कि मेरे नजदीकी बाजार सरदहा मे 4-5 डाक्टर हुआ करते थे, जिनके पास आयुर्वेदिक, होम्योपैथी या यूनानी चिकित्सा की डिग्रियां थीं। सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र लगभग 6 किलोमीटर दूर था और जनपद मुख्यालय आजमगढ़ मे भी गिने चुने दो अस्पताल थे। एक सरकारी सदर अस्पताल और एक मिशन अस्पताल। कुछ गिने चुने प्राइवेट डाक्टर। कुकुरमुत्तों की तरह न तो प्राइवेट अस्पताल थे, न पैथोलॉजी और न ही डायग्नोस्टिक सेन्टर्स। 3-4 किलोमीटर दूर भीमबर मे एक वैद्य जी थे, जिनका नाम बहुत सम्मान से लिया जाता था।


ऐसे ही जिला न्यायालयों, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में गिने चुने वकील थे, जिनका नाम बहुत सम्मान से लिया जाता था। प्रायः लोग जिला न्यायालयों और कमिश्नरी के मुकदमे लड़ने सतुआ पिसान लेकर पैदल ही जाया करते थे। विलंब होने पर वकील साहब के बंगले पर ही रुक जाया करते थे। वकील मुवक्किल से जरूर पूछते थे कि उनके पास लौटने के लिए किराया भाड़ा और खाने के पैसे हैं कि नहीं। आजकी तरह जेब की आखिरी चवन्नी भी खिंच लेने की जगह वे किराया भाड़ा देकर मुवक्किल को भेजते थे।


आज की तरह शिक्षा भी गली गली, घर घर उपलब्ध नहीं थी। प्राइमरी स्कूल 2 से 3 किलोमीटर दूर होते थे। 10 किलोमीटर की परिधि में 4-5 इंटरमिडिएट कालेज होत थे। डिग्री कालेज भी गिने चुने। मात्र एक पालिटेक्निक कालेज।


राजनीति से भी सरोकार रखने वाले गिने चुने लोग थे। इसी तरह हर क्षेत्र में विषय विशेषज्ञ गिने चुने थे, चाहे वह धर्म हो, ज्योतिष हो, कर्मकांड हो, सामाजिक विषय हों या अन्य क्षेत्र। क्षेत्र में गिने चुने लोग थे, जिनको आर्थिक, सामाजिक, विदेश नीति, पर्यटन या पर्यावरण का ज्ञान होता था। ऐसे लोगों के यहाँ क्षेत्र के तमाम जिज्ञासु लोग सुबह- शाम बैठते थे, उन विषयों पर चर्चा करते थे।


हमारे बचपन में विन्ध्यांचल, काशी, प्रयाग, हरिद्वार और उत्तराखंड के तमाम पंडित, पंडा और विद्वान भिक्षाटन के लिए आते थे। उनका बड़ा सम्मान होता था। वे लोग कइ कइ दिन रूकते थे। दिन में क्षेत्र में भिक्षाटन करके शाम को आ जाते थे।खुद अपना भोजन बनाते थे। हम लोग भी प्रसाद पाते थे। बैठक होती थी। धार्मिक कथा कहानियां व दर्शन की बातें होती थी।कुछ नया जान समझ कर बड़ा आनंद आता था।


हमारे समय में न तो, व्हाट्सएप महाविद्यालय था, न फेसबुक विश्वविद्यालय और ही गूगल महाग्रंथ था। न ही कदम कदम पर अंग्रेजी स्कूल, विद्यालय, महाविद्यालय व विश्वविद्यालय फिर भी अंग्रेजी का जो व्याकरण मुंशी जी, पंडित जी और बाबू साहब ने छड़ी के साथ सिखाया, वह आज भी याद है। विशेषज्ञता तो नहीं आइ लेकिन लिखने, पढने और बोलने का काम चल जाता है। उस दौर में हम लोग इतने सौभाग्यशाली नहीं थे कि 10 - 15 प्रश्नों की सिरीज़ पढ़कर बैचलर, मास्टर, कानून व अन्य विशिष्ट विषयों की डिग्री प्राप्त कर ली जाए।

मुझे सर्व विषय विशेषज्ञों से न तो कोई ईर्ष्या है और न ही कोई दुर्भावना। बल्कि मैं भी उनके साथ (सं) वाद-विवाद करके लाभान्वित होता रहता हूँ। मुझे बहुत अच्छा लगता है कि हमारे नौजवान सर्व विषय विशेषज्ञ होते जा रहे हैं। क्या मेडिसिन, क्या विज्ञान, क्या खगोल शास्त्र, क्या धर्म, क्या आर्थिक क्षेत्र, क्या विदेश नीति, क्या रक्षा क्षेत्र, क्या अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और क्या कानून, हमारे नौजवान सारे विषयों में समान रूप से महारत रखते हैं।


कुछ विषय तो केवल व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्वीटर या मिडिया मे वाद विवाद तक सिमित रहते हैं, तो कुछ व्यक्तिगत संबन्धों मे तनाव या टूटन पैदा करने में अहम भूमिका निभाते हैं।


लेकिन एक ऐसा क्षेत्र है, मेडिसिन का, जिसकी विशेषज्ञता भारत के लिए किसी डिजास्टर से कम नहीं है। पिछले दस पांच साल तो मुझे बखूबी याद हैं। सार्वजनिक स्थान पर जब भी मैंने किसी प्रकार की अस्वस्थता का जिक्र किया होगा, तो बकायदे दवाओं के नाम, डोज वगैरह की पूरी जानकारी सहित सुझाव जरूर मिले हैं। हर किसी को पता है कि बुखार, खांसी, जुकाम, एलर्जी, इनफेक्शन, दर्द, अपच, वायुदोष, डिसेंट्री इत्यादि में कौन सी दवाएं इस्तेमाल होती हैं।


आज इसी विशेषज्ञता की देन है कि फार्मास्युटिकल कम्पनियां अरबों रुपए के कारोबार मेडिकल आउटलेट्स के जरिए कर रही हैं। न कोई पर्चा न प्रेस्क्रिप्शन। खुद ही डॉक्टर, खुद का डाइग्नोसिस, खुद का प्रेस्क्रीप्शन बस झटपट दवा खरीदी और सेवन शुरू।


और इस महामारी मे तो पूछना ही नहीं। विशेषज्ञों को अपनी विशेषज्ञता दिखाने का बेहतरीन मौका मिला। और इस सबमें व्हाट्सएप और फेसबुक ने बड़ी मदद की। यूं तो लोग खुद ही पारंगत थे, उपर से सरकार की तरफ से भी कोरोना कीट मे सम्मिलित दवाओं का प्रसारण कर दिया गया। सोने पर सुहागा। जिन दवाओं के नाम मालूम नहीं थे, उनका भी ज्ञान हो गया। स्टेरॉयड की गोलियों का भी ज्ञान हो गया।

अब छिंक आ गई तब भी, नाक बह गई तब भी और गले में खराश आ गई तब भी सर्व विषय विशेषज्ञों के तत्वावधान में हमनें खूब गोलियां गटकीं। क्या एंटीबायोटिक, क्या स्टेरॉयड, हमने कोई कमी नहीं छोड़ी।


अब एक अध्ययन सामने आ रहा है कि कोरोना के नाम पर अनाप सनाप गोलियां गटकने से सुपरबग पैदा हो गए। यानि ऐसे विषाणु, जिन पर किसी भी दवा का कोई प्रभाव नहीं होता।


अध्ययन के अनुसार कोरोना काल मे मरने वालों में 60% मृत्यु का कारण हमारी विशेषज्ञता को जाता है व 15 से 20 % एसोसिएटेड बिमारियों मसलन बी.पी., सुगर, हर्ट को जाता है। अर्थात वास्तव में कुल 20% लोग ही वास्तविक बिमारी से मरे हैं। यही हाल हर क्षेत्र में है। हमारे मुगालतों का खामियाजा देश और समाज भुगत रहा है।


संदेश बहुत साफ है कि यदि हमनें अपनी विशेषज्ञता का मुगालता नहीं छोड़ा, तो देश और समाज को इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। क्षेत्र विशेष के विशेषज्ञों के काम को सम्मान दें। अपनी सर्व विषय विशेषज्ञता की टांग हर क्षेत्र में न घूसेड़ें।


असहमति का सदैव स्वागत है, पर विशेषज्ञता, भगवान बचाएं।

21 views0 comments

Comments


bottom of page