देश में मुफ्तखोरी की राजनीति बन्द होनी चाहिए और मुफ्तखोरी का पासा फेकने वालों का बहिष्कार होना चाहिये।
मुफ्त की राजनीति करने वाले अपनी जेब से, अपने पिताजी की सम्पत्ति से या अपने परिवार की आमदनी से एक पैसा भीख भी नहीं देते। लेकिन देश के मध्यम वर्ग की धमनियों को निचोड़कर, मुफ्तखोरी की राजनीति करते हैं। वह अपनी सम्पत्ति मे से देना चाहें, तो जरूर दें, स्वागत है।
यह दुखद है कि हम और आप लालच में इतने अन्धे हो चुके हैं कि हम यह भी नहीं सोचते कि मुफ्तखोरी के लिए पैसे आ कहाँ से रहे हैं और ऐसी राजनीति का दुष्प्रभाव क्या है। लोग मुफ्तखोरी को अपना संवैधानिक अधिकार समझने लगे हैं। इससे देश का अहित होगा।
देश मे शिक्षा, प्रशिक्षण और स्वास्थ्य सेवाओं के अतिरिक्त कुछ भी मुफ्त नहीं होना चाहिये। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि इस देश मे सबसे अधिक ब्याज शिक्षा लोन पर है। देश में कोई भी सरकार आइ या गई हो लेकिन उसने शिक्षा लोन पर ब्याज कम नहीं किए। आज मध्यम वर्ग के लोग अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए मंहगें कर्ज का दंश सहते हुए भारी भरकम कर दे रहे हैं और राजनीतिक दल उससे मुफ्तखोरी की राजनीति कर रहे हैं।
दुनिया के किसी देश में ऐसी मुफ्तखोरी नहीं है, जैसा हिन्दुस्तान मे है। देश और समाज को बैसाखी नहीं अच्छी नीतियों, मजबूत बुनियादी ढांचे और बुलन्द हौसले की दरकार है।
जितना पैसा फालतू की मुफ्तखोरी मे जा रहा है, उससे बुनियादी ढांचा और बुनियादी सेवाओं का संरक्षण व संवर्धन होना चाहिए।
माननीय केजरीवाल जी से मेरा कोई राग द्वेष नहीं है परन्तु मैं ऐसी राजनीति को उचित नहीं समझता।
यदि गरीबों को मुफ़्त सुविधाएं देना मुफ्तखोरी है तो अमीरों को मुफ़्त व्यापार के अवसर बना कर देने वाली नीतियों को लागू करना क्या है? आपको लगता है ये बड़े बड़े व्यापारी राजनीतिक पार्टियों को जो हजारों करोड़ का चन्दा देते हैं वो मुफ्तखोरी नहीं है? दरअसल वो मुफ्तखोरी नहीं है क्योंकि उसके बदले मे उन व्यापारियों को मुनाफा मिलता है और इसीलिए वो नहीं चाहते कि उसमे से थोड़ा भी पैसा किसी और को मिले इसीलिए उन्होंने ये मुफ्तखोरी का तमगा उछला है। सरकार को यदि गरीबों के लिए कुछ नहीं करना है तो सरकार की जरूरत ही क्या है कंपनी बहादुर को ही देश दे देते हैं न।